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महिलाओं के लिए मिसाल बनी सतना की सगमनिया, चंद्रकली और राजलली
जंगल, जिंदगी और जंग.. इन्हीं तीन शब्दों के बीच गुजर बसर कर रहीं तीन महिलाओं ने अपनी मेहनत और मजबूत इरादों से अपने भाग्य को खुद लिख डाला। इससे न केवल उनकी आमदनी बढ़ी है बल्कि परिस्थितियों ने भी करवट ली है। यह कहानी है मध्यप्रदेश के सतना जिले के मझगवां ब्लॉक के आदिवासी बाहुल्य गांव बरहा मवान की। यह गांव सतना शहर से चित्रकूट की ओर जाने वाले रास्ते में पड़ता है। ग्राम पंचायत पिंडरा का यह गांव करीब 2 सौ घरों का है। जिसमें ज्यादातर दलित समुदाय के लोग रहते हैं।
मिचकुरीन पहाड़ की तलहटी में बसे इस गांव में रोजगार का कोई बड़ा साधन नहीं है। इसलिए पुरुष आसपास के गांव के जमींदारों के यहां मजदूरी करते हैं और महिलाएं पास के ही जंगल में लकड़ी बीनने जाती हैं। दिन भर जंगल की खाक छानने के बाद महिला के गठ्ठा लकड़ी ही जुटा पाती हैं। और दूसरे दिन उसे दूर के गांव या फिर शहरों में बेचने जाती हैं। जहां निचली बस्तियों में रहने वाले लोग खरीद ले जाते हैं। यहां की तीन महिलाएं सगमनिया मवासी, चंद्रकली मवासी और राजलली मवासी ने लकड़ी बीनने और बेचने का काम बंद कर एक नई जिंदगी की शुरुआत की है।
दो दिन में कमाती थीं 50 रुपये, फिर…
सगमनिया का 10 लोगों का परिवार है। उसे चार साल पहले पिता की मृत्यु के बाद 4 एकड़ जमीन मिली, इसमें उसने खुद से खेती शुरू कर दी। इससे जो पैसे आए उससे एक ट्रैक्टर में खरीद लिया। वह बताती है कि ट्रैक्टर लेने से यह फायदा हुआ कि अन्य किसानों के खेत भी बटाई भी ले लिए। इस तरह से मेहनत ज़्यादा है लेकिन आमदनी बेहतर है। वह बताती हैं कि अभी 90 क्विंटल धान बेचा है जिससे करीब पौने दो लाख की आमदनी की हुई। पिछली बार 95 क्विंटल गेहूं की एवज में करीब 2 लाख रुपये मिले थे। पहले जब लकड़ी बेचते थे तब दो दिन में 50 रुपये आमदनी थी तब एक वक़्त का ही भोजन हो पाता था।
पैसे बचाकर खोली किराने की दुकान
इसी तरह चंद्रकली मवासी (48 वर्ष) का भी जीवन है। वह लकड़ी बेचने के लिए दूर दराज के गांव पैदल जाया करती थीं लेकिन फिर उन्होंने शबरी नाम का स्व सहायता समूह बनाकर महिलाओं को उसमें जोड़ा लेकिन ज्यादा दिन यह काम नहीं कर सकीं। इसके बाद सांझा चूल्हा योजना में रसोइया माता का काम मिल गया जिसमें हर महीने 2 हज़ार रुपए मिलने लगे। वह बताती हैं कि रोज़मर्रा के खर्चे से बचत कर उसने किराना दुकान खोल ली है। पहले तो फायदा नहीं हुआ लेकिन अब रोज 4 सौ रुपये तक की बिक्री हो जाती है और इसमें से 150 रुपये तक बाख जाते हैं।
लॉकडाउन ने दिया नया रास्ता
ऐसी ही कहानी राजलली मवासी (38 वर्ष) की भी है। उन्होंने सेज से उतरने के बाद ही जंगल की राह पकड़ ली थी। वह बताती है कि ब्याह जल्दी हो गया था। इसके बाद से ही जंगल में लकड़ी बीनने और बेचने का काम मिल गया था। एक दिन जंगल में लकड़ी बीनना और दूसरे दिन गांव शहर में जाकर बेचना, यही काम था लेकिन 2 साल पहले जब पहली बार लॉकडाउन लगा था तब 5 फ़ीट चौड़ा और 10 फ़ीट गहरा कुआं खोदा था। इसमें 20 दिन लगे। कुँए के बगल में पड़ी ज़मीन में सब्जियां उगाईं, जिससे करीब रोज का 2 सौ रुपये मिल रहे हैं। जबकि लकड़ी बेचने में 2 दिन की मजदूरी 60 रुपए ही मिल पाती थी।
सन्दर्भ स्रोत : हिन्दुस्तान
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