
छाया : पीपल्स असेम्बली डॉट नेट
विकास क्षेत्र
समाज सेवा
प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता
रचना ढींगरा
• वंदना दवे
सैंतीस बरस पहले हुए दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे का दंश भोपाल आज भी झेल रहा है। खेतों में इस्तेमाल कीटनाशकों की अमेरिकी फैक्ट्री यूनियन कार्बाइड से 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात में मिथाइल आइसोसाइनाईट (मिक) गैस का रिसाव हुआ था। इसके प्रभाव से भोपाल में हजारों लोग असमय ही काल के गाल में समा गए थे और लाखों लोग अपाहिज और बीमारग्रस्त होकर जीने को मजबूर हो गए। विडम्बना यह है कि 3 दिसंबर की तारीख भोपाल में हर साल श्रद्धांजलि और स्थानीय अवकाश का दिन बनकर रह गई है। सरकार अपनी ज़िम्मेदारी की इतिश्री कुछ ऐसे ही आयोजनों के साथ इतने बरसों से करती आ रही है। लेकिन कुछ आवाज़ें हैं जो इस दर्दनाक हादसे में न जाने क्या-क्या खो चुके लोगों के साथ मजबूती से खड़ी है और निरन्तर प्रदेश,देश और अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर इसे दर्ज कराती जा रही है।
इनमें से एक आवाज़ है सामाजिक कार्यकर्ता रचना ढींगरा की। 3 सितंबर 1977 दिल्ली में जन्मी रचना अपने माता-पिता की इकलौती संतान है। पुत्री के रूप में इनके जन्म के कारण कुछ समय बाद ही उनके माता-पिता का अलगाव हो गया था, इसलिए रचना जी अपने पिता का नाम कहीं दर्ज भी नहीं करतीं। इनकी परवरिश इनकी मां श्रीमती मीरा खूबचांदनी ने ही की। मां भारत सरकार के एक उपक्रम में अधिकारी के पद पर थी।1992 में माँ ने दूसरी शादी कर ली और अमेरिका चली गईं, रचना को भी उनके साथ जाना पड़ा। इससे पहले उनकी नौवीं तक की पढ़ाई दिल्ली में हुई। इसके बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के मिशिगन से हाईस्कूल तक की पढ़ाई की। मिशिगन विश्वविद्यालय रन आर्बर में रॉस स्कूल ऑफ बिजनेस से बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन में स्नातक किया। पढ़ाई के दौरान ही रचना ‘एसोसिएशन फॉर इंडिया डेवलपमेंट एन ऑर्बर’ नामक एक समूह से जुड़ गई। यह संस्था अमेरिका में बसे भारतीयों की है। यूएस में कई जगह यह संस्था काम करती है। संस्था का उद्देश्य भारत में संघर्ष और निर्माण के कार्य में सहयोग करना था। इसी दौरान उन्होंने गुजरात भूकंप पीड़ितों और उसके बाद गुजरात दंगों में प्रभावितों लोगों के लिए काम किया।
रचना जी जब मिशिगन विश्वविद्यालय में पढ़ रही थीं, तभी वहीं के इकोलॉजी सेंटर से एक मेल आया कि आप एक भारतीय संस्था के लिए काम कर रही हैं। भोपाल से गैस पीड़ितों के लिए काम करने वाले लोगों का एक दल मिशिगन आ रहा है। कृपया उन्हें सहयोग करें। रचना कहती हैं कि उन्हें 1999 यानी पंद्रह साल बाद इस घटना की भयावहता का पता उस दल के सदस्यों से चला। उस वक्त तक मैं सिर्फ यही जानती थी कि गैस हादसे के बाद लोगों को मुआवजा मिल गया है और अब सब कुछ सामान्य है। लेकिन जब मैंने इसकी हकीकत जानी तो मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि यहां प्रभावितों की हालत कितनी दयनीय है। यही वह बिंदु था, जहां मैं इस आंदोलन से जुड़ी। ये दल यूनियन कार्बाइड का डाउ केमिकल्स में मर्जर का विरोध करने के लिए आया था।
दरअसल सन 2001 से यूनियन कार्बाइड कंपनी का डाउ केमिकल्स कंपनी ने अधिग्रहण कर लिया और गैस पीड़ितों के मुआवजे और जहरीले रासायनिक कचरे के निष्पादन की ज़िम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया। दल के सदस्यों की एक मांग यह भी थी कि यदि डाउ केमिकल्स यूनियन कार्बाइड की संपत्ति अधिग्रहित कर रहा है तो उसे उसकी केवल संपत्ति ही नहीं बल्कि सारी ज़िम्मेदारी भी लेनी होगी। क्योंकि अमेरिका में उसने ‘यूका’ की सारी जिम्मेदारियां ली है। डाउ का मुख्यालय मिशिगन में है, इसलिए ये लोग यहां आए थे। उस दल के एक सदस्य डॉक्टर त्रिवेदी थे, जो घटना के वक्त हमीदिया अस्पताल में ड्यूटी पर थे। उनसे पता चला कि प्रदूषण कैसे फैल रहा है और पंद्रह साल बाद भी डॉक्टरों को नहीं मालूम कि पीड़ितों का इलाज कैसे करना है। यूनियन कार्बाइड कंपनी ने गैसों पर जो शोध किया था उसे कभी सार्वजनिक ही नहीं किया। इसलिए कोई नहीं जानता था कि मिक के असर से हुई बीमारियों का वास्तविक उपचार क्या होगा।
रचना ने डिग्री हासिल करने के बाद सन 2000 में एक्सेंचर में व्यवसाय सलाहकार के रूप में कार्य किया। एक्सेंचर में काम करने के दौरान उनका क्लाइंट डाउ केमिकल्स ही था। उस वक्त रचना को लगा कि नौकरी के साथ ही कंपनी के अंदर रहकर वे कुछ बदलाव ला पाएंगी और क्लाइंट को समझा सकेंगी। संयोग से उनके आस-पास जितने भी लोग काम कर रहे थे वे मानवाधिकारों और पर्यावरण के मुद्दों पर बहुत सक्रिय थे। लेकिन उन्होंने महसूस किया कि कंपनी का कोई दिल नहीं होता। उसका उद्देश्य केवल अपने शेयरधारकों के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ही होता है। कुछ समय बाद सन 2002 में कंपनी से इस्तीफा देकर रचना भोपाल आ गईं और भोपाल गैस पीड़ितों के लिए इंसाफ़ कि लड़ाई में शामिल हो गईं। पिछले कई सालों से वे भोपाल ग्रुप ऑफ इंफॉर्मेशन एंड एक्शन संस्था के माध्यम से गैस पीड़ितों को उनका हक़ दिलवाने में जुटी हुई हैं। उनकी संस्था का मक़सद जहरीले रासायनिक कचरे का सही तरीके से निष्पादन, जीवित बचे लोगों को उचित मुआवजा दिलाना, स्वच्छ पेयजल के लिए प्रयास करना, रोजगार पैदा करना और स्थानीय और वैश्विक समुदाय को संगठित करना है।
डाउ केमिकल्स द्वारा जिम्मेदारियां न लेने के मुद्दे को रचना ढींगरा सोशल मीडिया व अन्य माध्यमों से लगातार उठा रही है। लगभग हर रोज वे डाउ केमिकल्स को टैग करते हुए उसकी अंतरात्मा को झकझोरने का प्रयास कर रही है। वे कहती हैं कि डाउ अमेरिका की संस्थाओं और अदालतों में अपने आपको ऐसे पेश करता है जैसे गैस काण्ड से उसका कोई लेना-देना न हो। 2005 में डाव केमिकल की एक संयुक्त कम्पनी को सिंथेटिक रबर की कीमतों के मामले में ‘शर्मन एंटीट्रस्ट अधिनियम’ का दोषी पाया गया था। इसे एक अन्तर्राष्ट्रीय साजिश करार देते हुए 84 मिलियन डॉलर का जुर्माना भी अदा करवाया गया था। जबकि भारत में डाउ केमिकल्स ने अब तक तामील हो चुके आधा दर्जन नोटिसों को नज़र अंदाज़ कर दिया है। भारतीय अदालतों का डाउ केमिकल्स कम्पनी- अमेरिका (टीडीसीसी) पर कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। जबकि डाउ के दोहरे मापदंड उसके संचालन के हर पहलू में बहुत साफ़ हैं।
रचना ढींगरा का कहना है कि गैस रिसाव से दो बड़े नुकसान हुए। एक तो लोगों पर सीधे गैस का असर हुआ है। इसकी संख्या सरकारी आंकड़ों से कहीं ज्यादा है। लगभग पौने छह लाख लोगों पर गैस का असर हुआ है, दूसरे शब्दों में भोपाल की लगभग आधी आबादी उससे भोपाल प्रभावित है। दूसरा नुकसान पर्यावरण प्रदूषण के रूप में सामने आया है। जहरीले कचरे के कारण 42 बस्तियों में भूजल खतरनाक रूप से प्रदूषित है। यूनियन कार्बाइड कारखाने में ऐसे रसायन पाए गए हैं जो बच्चों में जन्मजात विकृतियां पैदा करते हैं। पूरे विश्व में 12 ऐसे परसिस्टेंट ऑर्गेनिक पोल्यूटेंट्स (POP) तत्व हैं जिन्हें डर्टी डजन कहते हैं, इनकी विषाक्तता सालों साल रहती है। गैस काण्ड के बाद भोपाल की बस्तियों में इन बारह में से छह रसायन पाए गए। इस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है।
रचना कहती है कि पीड़ितों के परिवार में चर्म रोग, सांस की तकलीफ़, बांझपन, विकलांगता , जन्मजात विसंगति, कैंसर दस गुना हो रहा है और अनेक दूसरी बीमारियां भी मौजूद हैं। जहरीले पानी के कारण नई पीढ़ी के बच्चों में भी ये बीमारियां हो रही हैं। इस पर हम सरकार से पूछना चाहते है कि इनके इलाज, पुनर्वास और रोज़गार के लिए क्यों कुछ नहीं किया जा रहा है। हादसे के सैंतीस बरस बीत जाने के बाद भी यह तय नहीं है कि लोगों का सही इलाज कैसे हो। जो लोग इस नरसंहार के जिम्मेदार हैं- चाहे वे अधिकारी हों, नेता या कंपनी के कर्ताधर्ता हों, सब आज़ाद घूम रहे हैं और नाम बदलकर इस देश में निवेश कर रहे हैं।
रचना जी ने 2006 और 2008 में गैस पीड़ितों और उनके समर्थकों के साथ भोपाल से दिल्ली पदयात्रा की। 2007 में सरकार को चेताने के लिए 19 दिन का उपवास भी किया। 2008 में सरकार ने इन्हें तिहाड़ जेल में डाल दिया गया तो वहां भी 10 दिन तक अनशन जारी रखा। 2009 में उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका के विभिन्न शहरों में गैस पीड़ितों की समस्याओं को लेकर सभाएं की। इतने बरस से गैस पीड़ितों के लिए सतत संघर्ष करने के बाद के नतीजों पर रचना जी का कहना है कि 42 बस्तियां जहरीला भूजल पीने के लिए बाध्य थीं, वहां अब नर्मदा जल नि: शुल्क मिल रहा है। इसके लिए हमने दो बार दिल्ली तक पदयात्रा की, जेल गए, अदालती लड़ाई लड़ी। इसी का नतीजा है कि पीड़ितों को साफ़ पानी मिल पा रहा है।
इसके अलावा हम लोग सुप्रीम कोर्ट में यह सिद्ध कर पाए कि गैस पीड़ितों के लिए स्वास्थ्य का अधिकार उनके जीवन का आधिकार है। इसके फलस्वरूप हाल ही में मंत्रिमंडल कि बैठक में निर्णय हुआ कि आयुष्मान भारत का लाभ हर गैस पीड़ित को आजीवन मिलेगा तथा इसकी कोई अधिकतम सीमा नहीं है। गैस पीड़ितों को दूसरी बार 2004 में एक्स ग्रेशिया काॅम्पनसेशन मिला, वो हम लोगों की पहल से मिला। डाउ केमिकल्स पर दबाव बनाने का हमारा काम जारी है। कंपनी पर कानूनी जिम्मेदारी बनी रहे इसके लिए हम लोग लगातार लगे हुए हैं। यह एक उपलब्धि है कि नर्मदा आंदोलन के बाद गैस पीड़ितों के न्याय के लिए लड़ाई का यह आंदोलन इतना लंबा चल रहा है। हमने दुनिया को दिखाया कि पहली ही नहीं, बल्कि दूसरी पीढ़ी में भी गैस का गंभीर असर हुआ है। इनके आंकड़े हम ला पाए हैं।
2009 में रचना ने गैस पीड़ितों के लिए पहले से काम कर रहे सतीनाथ सारंगी (सत्यू) को अपना जीवन साथी चुना। गैस रिसाव की घटना का पता लगते ही सत्यू भोपाल आ गये थे। तब से ही इन पीड़ितों के संघर्ष के साथी हैं। इन्होंने पीड़ितों को उचित स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए संभावना ट्रस्ट की स्थापना की। संभावना क्लिनिक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्य भी करता है। गैस पीड़ितों को निशुल्क इलाज मुहैया करवा रहा है। यह एकमात्र संगठन है जो वर्तमान में भोपाल गैस एक्सपोजर के दीर्घकालिक प्रभावों पर शोध कर रहा है। रचना और सतीनाथ का एक छह वर्षीय बेटा है। जिसका नाम जादू है।
रचना ढींगरा को 2011 मैरिएन पर्ल और इंडिया टुडे ग्रुप के चेयरमैन तथा एडिटर-इन-चीफ अरुण पुरी से पब्लिक सर्विस कैटेगरी में इंडिया टुडे वुमन ऑफ द ईयर अवार्ड मिला, क्योंकि उन्होंने भविष्य की उज्जवल संभावनाओं को छोड़कर गैस पीड़ित परिवारों के लिए भोपाल आने का साहसिक फैसला किया। कॉर्पोरेट अपराध का सामना करने में उनके साहस का सम्मान करते हुए उन्हें बर्लिन, जर्मनी में 23 नवंबर 2019 को अंतरराष्ट्रीय एथकॉन ब्लू प्लैनेट अवार्ड भी मिला।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।
संदर्भ स्रोत: रचना ढींगरा जी से वंदना दवे की बातचीत पर आधारित
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