
छाया : स्व संप्रेषित
विकास क्षेत्र
वास्तुशिल्प, इतिहास एवं धरोहर
डॉ. मीनाक्षी दुबे पाठक
• सारिका ठाकुर
चित्रकला में गहरी रूचि रखने वाली मीनाक्षी दुबे पाठक आदिम चित्रकारी को जानने-समझने के क्रम में पहाड़ों की उन कंदराओं में जा पहुंची जहाँ हमारे पुरखों की कृतियाँ आज भी विश्राम कर रही हैं। तभी से शैलचित्रों को ढूंढना और उन्हें सुरक्षित रखने के लिए प्रयास करना मीनाक्षीजी के जीवन का मकसद बन गया। लगभग 35 वर्षों से वे भारतीय शैलचित्रों की खोज एवं अध्ययन के साथ ही संरक्षण एवं इनके विषय पर आयोजित कार्यशालाओं एवं प्रदर्शनियों में सम्मिलित होती रही हैं। इनके प्रयासों से मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के कई शैलचित्र प्रकाश में आए। पचमढ़ी के निकट सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान के 10 शैलाश्रयों को वन विभाग, मप्र की मदद से उन्होंने संरक्षित करवाया।
मीनाक्षी जी का जन्म जबलपुर में 2 नवम्बर 1964 में हुआ था। उनके पिता श्री पुरुषोत्तम दुबे सरकारी अधिकारी और माँ श्रीमती कृष्णा दुबे गृहिणी थीं। पिता की नौकरी में तबादलों के कारण उनकी प्रारंभिक शिक्षा अलग-अलग स्थानों पर हुई। वर्ष 1980 में उन्होंने ह्यूमैनिटीज विषय लेकर इटारसी के सेंट जोसेफ कॉन्वेंट से हायर सेकेण्डरी किया। तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी मीनाक्षी जी के पास बचपन से जुड़ी कई सुनहरी यादें हैं। पिता के तबादलों के कारण अलग-अलग जगहों पर घूमने का खूब अवसर प्राप्त हुआ। छुट्टियों में वे अक्सर किसी जंगल के आसपास पिकनिक के लिए लेकर जाते। जंगलों और पहाड़ों से संभवतः तभी उनकी मैत्री स्थापित हो गई।
1980-83 में उन्होंने जबलपुर होम साइंस कॉलेज से मनोविज्ञान, भूगोल एवं फाइनआर्ट लेकर स्नातक की उपाधि प्राप्त की, जिसके बाद वहीं से उन्होंने स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। इस बीच कुछ-कुछ शैलचित्रों से इनका परिचय हो चुका था और मन में उन्हें और ज्यादा करीब से जानने की इच्छा थी। नेशनल फेलोशिप की परीक्षा में उत्तीर्ण होकर मीनाक्षी पीएचडी के लिए शोधकार्य में जुट गईं। विषय था –स्टडी ऑफ़ प्री हिस्टोरिक रॉक पेंटिंग्स ऑफ़ पचमढ़ी। इस अध्यन में गाइड के रूप में उन्हें खैरागढ़ विश्विद्यालय के चित्रकला प्रोफ़ेसर श्री उमेश मिश्र एवं स्वनामधन्य पुरातत्त्वविद डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर का मार्गदर्शन मिला।
पांच वर्ष के शोधकार्य की समाप्ति तक भविष्य की धुंधली तस्वीर बहुत कुछ साफ़ हो चुकी थी। लेकिन डॉ. वाकणकर के असमय निधन से उन्होंने एक सच्चे गुरु को खो दिया। वह 1990 का दौर था। उसी दौरान उन्हें इटली में आयोजित सेमिनार में सम्मिलित होने का अवसर मिला, जिसे संस्कृति विभाग, मप्र ने प्रायोजित किया था। इसी बीच कर्नल गिरीश पाठक से उनका विवाह हुआ मगर विवाह के बाद परिवर्तित जीवन शैली में भी उन्होंने अपने काम के लिए रास्ते तलाश लिए। इसके बाद की समयावधि में उन्हें अलग-अलग कॉलेजों से नौकरी का आमंत्रण मिला परन्तु सेना अधिकारी होने के नाते उनके पति की पोस्टिंग हमेशा अलग-अलग जगहों पर होती रही जिसकी वजह से किसी एक जगह स्थायी नौकरी कर पाना उनके लिए संभव नहीं था। चुपचाप घर में बैठ जाने के स्थान पर मीनाक्षी ने अपनी परिस्थिति से ही लाभ उठाना शुरू कर दिया। जहाँ-जहाँ उनके पति की पदस्थापना होती, वे वहां के आस-पास के जंगलों और पहाड़ों में शैलचित्र ढूंढती, रिकॉर्डिंग करतीं, तस्वीरें लेती और उन पर लेख लिखकर दुनिया के प्रमुख संस्थानों को भेजतीं।
शुरुआती दौर में ही उन्हें एप्को (पर्यावरण नियोजन एवं समन्वय संगठन) की ओर से एक प्रोजेक्ट प्राप्त हुआ जिसमें उन्हें सतपुड़ा बायोस्फियर के शैलचित्रों का दस्तावेजीकरण करना था। उनके अनुसंधान कार्य के बाद 10 शैलाश्रयों को संरक्षित किया गया। रखरखाव के बाद सैलानी भी आने लगे, जिससे राजस्व की प्राप्ति भी विभाग को होने लगी। एप्को के सौजन्य से ही पचमढ़ी के ऐतिहासिक भवनों के दस्तावेजीकरण का काम भी मीनाक्षी जी ने किया। इस तरह गृहस्थी और शैलाश्रयों दोनों से उनकी मैत्री निभ रही थी।
वर्ष 2000-2004 की बात है, उनके पति की पोस्टिंग लेह, लद्दाख हुई। वहां सैन्य अधिकारियों को परिवार साथ रखने की अनुमति नहीं है। तथापि पांच महीने उन्हें वहां पति के साथ रहने की अनुमति मिल गई । इस दौरान वहां के पहाड़ों में क्षतिग्रस्त हो रहे शैलचित्रों को न केवल उन्होंने ढूंढा बल्कि उन्हें संरक्षित भी करवाया। ये शैलचित्र पाकिस्तान और चीनी सीमा के आसपास सिंधु नदी के किनारे बड़े-बड़े चट्टानों पर बने हुए हैं। भारतीय सेना की मदद से लेह के ‘कारू’ नामक स्थान पर इन्होंने ‘त्रिशूल पेट्रोग्लिफ्स पार्क’ की स्थापना की। वहां स्थापित सेंटर ऑफ़ बुद्धिस्ट स्टडीज की सेमिनारों में भी वे जाया करती थीं, जहाँ एक बार उनकी भेंट दलाई लामा से भी हुई। यह भेंट आज भी उनकी स्मृतियों में अंकित है।
एक फौजी की पत्नी होने के नाते मीनाक्षी जी अपने अध्ययन कार्य के लिए उन सुदूर क्षेत्रों में भी पहुँच जाती जहाँ तक आम नागरिकों की पहुँच नहीं होती.. कई बार दोनों बच्चियां भी साथ होतीं, जो या तो खेलतीं या शैलाश्रयों आदि के नाप जोख में माँ की मदद करतीं। जब वे फ़ील्ड में नहीं होतीं तो सेमिनारों में या लेखन कार्य में स्वयं को व्यस्त कर लेतीं। वर्ष 2009 में ब्रेडशॉ फाउंडेशन की तरफ से उन्हें के सन्देश मिला कि वे उनके शोधकार्यों का विवरण अपनी वेबसाइट पर डालना चाहते थे। फाउंडेशन से जुड़ने के दो तीन साल बाद वे उस संस्था में सलाहकार समिति की सदस्य बन गईं।
2010 तक बच्चे थोड़े बड़े हो गए थे, इसलिए शोधकार्यों पर ध्यान देना भी आसान हो गया। इस वर्ष उन्हें फ़्रांस में आयोजित एक सेमीनार में सम्मिलित होने का अवसर प्राप्त हुआ जिसे आईसीसीआर (इन्डियन कौंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस) ने प्रायोजित किया था। इसी समयावधि में मीनाक्षी जी की भेंट प्रगैतिहासकार डॉ. जॉन क्लॉट से हुई। दोनों एक दूसरे के कार्य और अनुभव से प्रभावित हुए और दोनों साथ मिलकर काम करने लगे। वर्ष 2012 में मीनाक्षी जी ने पीएचडी हेतु तैयार की गई थीसिस को पुस्तक प्रारूप में ‘द रॉक आर्ट ऑफ़ पचमढ़ी बायोस्फीयर’ नाम से प्रकाशित किया। दूसरी तरफ 2011 से डॉ. क्लॉट के साथ मिलकर शैलचित्रों के साथ-साथ आदिवासी जीवन में निहित सांस्कृतिक विशिष्टताओं और उनकी प्रकृति का अध्ययन करने लगीं।
वे कहती हैं शैलचित्रों में पायी जाने वाली कई विशेषताएं आज भी कुछ जनजातियों में देखी जाती हैं। मैं उनके दिमाग को पढ़ना चाहती थी। दो साल तक लगातार काम करने बाद वह शोधपत्र वर्ष 2013 में पुस्तक प्रारूप में ‘इमेजेज़ ऑफ़ गॉड’ नाम से फ्रांस के एक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ, जिसके लोकार्पण के लिए फ्रांसीसी दूतावास, दिल्ली ने उन्हें स्वयं आमंत्रित किया। वर्ष 2014 में फ़्रांस सरकार के संस्कृति मंत्रालय एवं संचार विभाग से शेवेलियर डेस आर्ट्स एट लेट्रेस’-नाईट इन द नेशनल आर्डर ऑफ़ आर्ट्स एण्ड लेटर्स के सम्मान से नवाज़ा गया। रॉक आर्ट में यह सम्मान प्राप्त करने वाली मीनाक्षी जी पहली भारतीय हैं।
पुनः 2015 से 2017 तक उन्होंने पुरात्तव एवं संस्कृति विभाग, छत्तीसगढ़ की एक परियोजना के अंतर्गत वहां के शैलचित्रों पर गहन शोधकार्य किये। इस अध्ययन के निष्कर्षों को तीसरी पुस्तक के रूप में आकार दिया गया। राज्य सरकार इस शोधकार्य की मदद से छत्तीसगढ़ के कई शैलाश्रयों को संरक्षित करने की योजना बना रही है, साथ ही इसकी मदद से शैलचित्रों से सम्बंधित कई भ्रांतियां भी दूर हुईं। वर्ष 2017 से 2019 तक मीनाक्षी इंटेक(इन्डियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एण्ड कल्चर), नई दिल्ली से जुड़कर मध्यप्रदेश के शैलाश्रयों व शैलचित्रों पर काम करती रहीं। मीनाक्षी जी का मानना है कि मध्यप्रदेश और छत्तीगढ़ में इक्का-दुक्का उदाहरणों को छोड़ दिया जाए तो एक भी जिला ऐसा नहीं जहाँ शैल चित्र न मिलते हों। चौथी पुस्तक के रूप में उनका शोध निष्कर्ष इंटेक, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ।
वर्ष 2019 में पुनः फ़्रांसिसी संस्कृति मंत्रालय ने ‘पैट्रिमोनीज़ डी ला बोर्स’ पुरस्कार से सम्मानित किया। कोरोना काल में लॉक डाउन के दौरान उन्होंने अपनी पांचवी पुस्तक पर काम किया। मार्च 2019 में उनके एक फ्रेंच साथी पुरातत्वविद स्टीफन ने उनके अनुसन्धान पर आधारित ‘सेन्ट्रल इन्डियन रॉक आर्ट एण्ड ट्राइबल आर्ट’ विषय पर फिल्म बनाई, जिसका प्रदर्शन ‘इंटरनेशनल अर्कियोलॉजी फिल्म फेस्टिवल, नियोन (स्विट्ज़रलैंड) में किया गया,जहाँ इसे न केवल पुरस्कृत किया गया, बल्कि मीनाक्षी जी को पेपर पढ़ने के लिए भी आमंत्रित किया गया।
वर्ष 2018-2020 में उन्हें वाकणकर शोध संस्थान द्वारा, वाकणकर सीनियर रिसर्च फेलोशिप प्राप्त हुई। मीनाक्षी शैलचित्रों पर आधारित शोधकार्य के अतिरिक्त जनमानस को उनकी महत्ता से अवगत करवाने हेतु समय-समय पर एकल प्रदर्शनियों में हिस्सा लेती रही हैं जिसमें वे कपड़े, वृक्ष की छाल, भोजपत्र एवं कांच पर शैलचित्रों की आकृतियों को चित्रित एवं प्रदर्शित करती हैं। इस तरह की प्रदर्शनी देश के दिल्ली, मथुरा, भोपाल, पचमढ़ी, रांची, आगरा, जोधपुर शिलोंग एवं विदेशों में –फ़्रांस, स्पेन, इटली, जर्मनी एवं अमेरिका में उन्होंने आयोजित की जा चुकी हैं।
स्वतन्त्र रूप से कार्य करते हुए मीनाक्षी जी 70 से अधिक ‘पेपर’ प्रकाशित हो चुके हैं एवं अब तक वे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान के अलावा अध्ययन के लिए यूरोप के 40 चित्रित शैलाश्रय स्थल का दौरा वे कर चुकी हैं। दुनिया के लगभग सभी प्रमुख देशों में ‘शैल चित्र एवं आदिवासी कला’ विषय पर व्याख्यान दे चुकी हैं। इसके अलावा वे कई राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की महत्वपूर्ण सदस्य भी हैं, जैसे –
- आईकोमोस, एवं यूनेस्को की एक्सपर्ट मेंबर
- ब्रेड शॉ फाउंडेशन, इंग्लैण्ड में सलाहकार समिति की सदस्य
- रॉक आर्ट नेटवर्क, गेट्टी फाउंडेशन, अमेरिका की सदस्य
- ऑस्ट्रेलियन रॉक आर्ट रीसर्च एसोसिएशन (एयूआरए) आस्ट्रेलिया
- इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ़ रॉक आर्ट ऑर्गनाइजेशन, अमेरिका
- Association pour le Rayonnement de l’Art Pariétal Européen (ARAPE), France
- पलेओ रिसर्च सोसायटी, भारत
- रॉक आर्ट सोसाइटी ऑफ़ इंडिया की संस्थापक सदस्य
- इण्डियन सोसायटी ऑफ़ प्रीहिस्ट्री एण्ड क्वाटरनेरी स्टडीज, पुणे
- द इण्डियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एण्ड कल्चर हेरिटेज
- अलाएन्स दे फ्रांसिस, भोपाल
वर्तमान में डॉ. मीनाक्षी दुबे पाठक अपने पति के साथ भोपाल में रहकर काम रही हैं। इनकी दोनों बेटियां विदेश में शिक्षा ग्रहण कर रही हैं।
विवरण स्व संप्रेषित एवं मीनाक्षी जी से बातचीत पर आधारित
© मीडियाटिक
Excellent 👏🏻👏🏻
Very nice