
छाया : मोहन द्विवेदी के एफ़बी अकाउंट से
सृजन क्षेत्र
सिरेमिक एवं मूर्ति कला
प्रमुख कलाकार
पुष्पनीर जैन
• सारिका ठाकुर
जीवन के अलग-अलग दौर में अलग-अलग कलाओं में दक्षता प्राप्त करने वाली पुष्पनीर जैन का जन्म अविभाजित मध्यप्रदेश के धमतरी शहर (वर्तमान में छत्तीसगढ़ का एक ज़िला) में 13 अप्रैल 1952 को रूढ़िवादी परिवार में हुआ था। सोलह वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह कर दिया गया, तब वे पुष्पा गुप्ता कहलाती थीं। दुर्भाग्यवश पति और ससुराल के लोग उन्हें वह सम्मान नहीं दे पाए जिसकी वे हकदार थीं। दो साल के भीतर उनके दो बच्चे हो गए और साथ ही उनकी परेशानियाँ भी बढ़ने लगीं। तंग आकर अपने बच्चों को लेकर वापस माता-पिता के पास धमतरी आ गईं। विवाह के बाद मायके में आ बैठने वाली बेटियां भारतीय समाज में बोझ ही समझी जाती हैं, ऊपर से पुष्पा जी दो बच्चों की माँ थीं। मायके वाले दूसरी शादी के लिए दबाव बनाने लगे जो उन्हें मंजूर नहीं था। तनाव बढ़ने पर अपने दोनों बच्चों के साथ घर छोड़ वे बस्तर के एक छोटे से गाँव में आकर बस गईं और एक स्कूल में नौकरी करने लगीं।
छोटी उम्र में ब्याह हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी इसलिए वह नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई भी करने लगीं। इन झंझावातों को झेलते हुए ही उन्होंने दर्शन शास्त्र और समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की और कुछ बेहतर की तलाश में रायपुर आ गईं, जहाँ से उन्होंने बाद में डबल एम.ए. (समाजशास्त्र) और एल.एल.बी. भी किया। शुरुआत में वे कविताएं लिखती थीं, जिससे आगे चलकर उन्होंने मुंह मोड़ लिया। रायपुर आकर वे रंगमंच से जुड़ गयीं। उस समय के सभी बड़े निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया। रायपुर में कला से जुड़े लोगों की एक अलग ही मण्डली थी जिसमें जयंत देशमुख, राजकमल नायक, सुधीर सक्सेना (कवि-पत्रकार), माया गोविन्द, मेहरुन्निसा परवेज़ आदि समूह के संगी-साथी थे।
इसी बीच सुप्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर से उनकी मुलाक़ात हुई। उन्होंने पुष्पा जी को आगामी नाटकों के लिए अनुबंधित कर लिया। जीवन का यही वह पड़ाव था जहाँ वह नाम बदलकर पुष्पा से पुष्पनीर बन गईं। अभिनेत्री के रूप में उन्हें देश भर के प्रतिष्ठित मंचों पर प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर मिला, दोनों बच्चों को पालना था, इसलिए इन सबके साथ वह छोटी- मोटी नौकरी भी कर रही थीं। इसी बीच उनकी मित्रता आभूषण व्यवसायी राजी जैन से हुई, जिनका कारोबार भोपाल में ही था। मेल-मुलाकातों का सिलसिला चला और कुछ समय एक दूजे को जानने के बाद दोनों परिणय सूत्र में बंध गये। यह शादी कोर्ट में हुई और इस तरह 90 के दशक में पुष्पनीर भोपाल आ गईं।
जल्द ही वे अग्रिम पंक्ति की रंगमंच अभिनेत्रियों में शुमार होने लगीं, उनके व्यक्तित्व में कठोरता का आभास देती हुई एक अलग सी ठसक थी। जिन परिस्थितियों से वह होकर गुजरीं थीं, उसके लिहाज से तो वह स्वाभाविक ही था। पत्रकार नीलम जी को दिए अपने साक्षात्कार में वह स्वीकार करती हैं कि –“यदि मैंने अपने आपको इस आक्रामक व्यवहार के आवरण में न रखूँ , तो यह पुरुष प्रधान समाज मुझे जीने नहीं देगा। मैं समाज द्वारा उत्पीड़ित थी, अतः यह आक्रोश मेरे भीतर उठना स्वाभाविक था।“
उल्लेखनीय है कि पुष्पनीर उस युग की सेलिब्रेटी थीं जिस युग में तथाकथित संभ्रांत परिवार अपनी बेटियों को रंगमंच पर अभिनय तो दूर, नाटक देखने के लिए भी नहीं भेजते थे। उस दौर में भी उनके द्वारा अभिनीत भगवत, अज्युकिम, इन्द्रजीत, सखाराम बाइंडर, सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, रसगंध आदि नाटकों की धूम मची हुई थी। भोपाल आने पर एक नई जिन्दगी के साथ एक नयी अभिरुचि भी उन्हें सौगात में मिली, भारत-भवन में उनका परिचय सिरेमिक आर्ट से हुआ, वह श्री देवीलाल पाटीदार के मार्गदर्शन में सीखने लगीं। पाटीदार जी उस समय सिरेमिक विभाग के इंचार्ज थे और वर्तमान में वे रूपंकर विभाग के निदेशक पद पर कार्यरत हैं।
कला गुरुओं का मानना है कि सीखने तो कई लोग आते हैं, लेकिन उनमें कलाकार कौन है, यह असलियत बहुत बाद में सामने आती है। लेकिन पुष्पनीर जन्मजात कलाकार थीं, मिट्टी से दोस्ती करने में उन्हें देर नहीं लगी और वे नित नए – नए आकार गढ़ने लगीं। उनके विद्रोही तेवर की झलक जो अब तक उनके अभिनय से मिल रही थी, उसने सिरेमिक माध्यम में आकर ठोस आकार लेना शुरू कर दिया। वरिष्ठ पत्रकार सुधीर सक्सेना उनकी सिरेमिक कृतियों के बारे में लिखते हैं – “ पुष्पनीर चिकने-चुपड़े आकार नहीं गढ़ती हैं, बल्कि वे उबड़-खाबड़, असमतल और खुरदुरी चीजें मनोयोग से बनाती हैं। चूँकि वे, सिरेमिक की प्रचलित अवधारणा का निषेध करती हैं और सिरेमिक के छंद को तोड़ती हैं, लिहाजा उनकी कृतियाँ चिकनी-सलोनी और समानुपातिक न होकर खुरदुरी और कठोर होने के साथ बहुधा बेढब और औरों से भिन्न लगती हैं। सुधीर जी अपने लेख में यह भी कहते हैं कि रंगकर्म के प्रति गहरे समर्पण और गहरी सम्बद्धता का ही असर है, कि पुष्पनीर की सिरेमिक कृतियों में नाटकीय तत्व भी उभर आता है। कृतियों को देखते हुए अचानक कोई मुखाकृति मुंह बिराती हुई नज़र आती है, तो अचानक कोई लम्बोतरा पात्र रंगमंच का विदूषक नज़र आने लगता है। चिकनाई के चमत्कार से कोसों दूर ये सिरेमिक-कृतियाँ कठोर और भींच लेने वाले आकर्षण से लबरेज लगती हैं।“
स्वयं पुष्पनीर रंगमंच और सिरेमिक के सन्दर्भ में कहती थीं कि रंगमंच मेरा पति है तो सिरेमिक मेरा प्रेमी, मैं दोनों को ही आत्मा से प्यार करती हूँ। रंगमंच के प्रति मैं पूरी ईमानदारी बरतती हूँ, वहीं सिरेमिक के प्रति भी लगन में कोई कंजूसी नहीं करती।“ विभिन्न साक्षात्कारों में उन्होंने यह भी व्यक्त किया था कि काम को लेकर वे पूरी तरह मन के अधीन हैं, ऐसे में रंगमंच से कहीं ज़्यादा मुफ़ीद उन्हें सिरेमिक लगता था क्योंकि रंगमंच में टीम वर्क होता है जबकि सिरेमिक में तो अकेले अपने मर्जी से काम किया जा सकता है। उनकी प्रतिभा और लगन का जादू सिरेमिक के क्षेत्र में भी दिखने लगा, वे देश के लगभग सभी प्रतिष्ठित कला दीर्घाओं में सम्मिलित एवं प्रशंसित हुई। भारत भवन के अलावा ऑल इंडिया आर्ट एण्ड क्राफ़्ट सोसायटी, नेशनल आर्ट फ़ेयर और मध्यप्रदेश कला परिषद आदि से भी जुड़ीं। 1995 में जापान के अंतरराष्ट्रीय सिरेमिक उत्सव में भी उन्हें आमंत्रित किया गया। वर्ष 1996-97 में उन्हें प्रतिष्ठित अमृता शेरगिल फैलोशिप प्राप्त हुई। 1953 से लेकर 1998 तक उन्होंने 15 समूह एवं 5 एकल प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया।
इस सफलताओं के साथ जिन्दगी पटरी पर लौट आई थी, वे कुछ और गढ़ती या कुछ और रचतीं उससे पहले ही वो हादसा हुआ, जिसने उनके घरौंदे का तिनका-तिनका बिखेरकर रख दिया। इंदौर में पढ़ाई कर रही उनकी इकलौती पुत्री ने भावनाओं के अतिरेक में अपनी इहलीला समाप्त कर ली। दुनिया के समक्ष चट्टान सरीखी आत्मविश्वास रखने वाली पुष्पनीर यह दंश झेल न सकीं और कुछ ही समय बाद ही वर्ष 2004 में स्वयं भी फांसी पर झूल गयीं। कुछ समय बाद उनके विवाहित और बाल-बच्चेदार पुत्र ने भी आत्महत्या कर ली। देखते ही देखते पुष्पनीर हक़ीक़त से एक अफ़साने में तब्दील हो गईं। आज उनके बारे में सटीक जानकारी देने वाले उनके चुनिन्दा रंगकर्मी साथी और सिरेमिक कलाकारों के अलावा पुरानी अख़बार की कतरनें भर हैं, लेकिन वे भी पूरी बात नहीं बतातीं। वैसे आज भी दिल्ली में स्थित चीनी दूतावास में लगी सिरेमिक कृति उनकी याद दिलाती है। कुछ कृतियाँ उनकी पुत्रवधू के पास हैं, उनके पोते का भी पदार्पण रंगमंच पर हो चुका है।
सन्दर्भ स्रोत: श्री देवीलाल पाटीदार से बातचीत एवं उनके द्वारा प्रदत्त कुछ पुरानी पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेख
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