
प्रेरणा पुंज
विशिष्ट महिलाएं
ज्योत्स्ना मिलन
जानी मानी लेखिका ज्योत्स्ना मिलन का जन्म 19 जुलाई 1941 में मुंबई में हुआ था। उनके पिता श्री भी साहित्यकार थे। घर में प्राचीन ग्रन्थ, हिंदी और अंग्रेजी साहित्य सहज ही उन्हें उपलब्ध था। कई साहित्यिक पत्रिकाएँ नियमित रुप से घर में आतीं थीं। उस समय जो भी लिखा जा रहा था उससे रुबरु होने का भरपूर अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। यह आनुवंशिक गुण समय के साथ निखरता चला गया ।एक ओर पिता ने इसका पोषण किया तो माता ने पारंपरिक नीतियों से परिचय करवाया। वह उन्हें शिक्षा देतीं कि लड़की हो और तुम्हें वे सारे काम सीखने चाहिए जो घर चलाने के लिए जरुरी है। इन नीतियों ने उनकी उड़ान को बाधित नहीं किया बल्कि पैर को ज़मीन पर टिकाए रखने में मदद की. बचपन में परिवार का माहौल कुछ ऐसा था जिसमें पिता लेखन और नौकरी में व्यस्त रहते और माँ चौदह सदस्य वाले परिवार को अकेली संभाल रहीं थीं। निःसंदेह इतने बड़े परिवार को अकेले संभालना संभव नहीं था इसलिए बच्चों की भी कुछ भूमिकाएँ निश्चित थी। उन्हें निभाते हुए भी ज्योत्स्ना जी अपनी साहित्यिक रूचि का भी भरपूर आनंद उठा रहीं थीं।
दस-बारह बरस की आयु से ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। 1951-52 के मध्य उन्होंने अपनी पहली कविता लिखी, जो कि हिंदी में थी ।बाद में वह हिंदी और गुजराती दोनों में समान रूप से लिखती रहीं। एक साक्षात्कार में वे कहती हैं – हम लोग गुजरात और राजस्थान के सीमावर्ती इलाके-वागड़ के रहने वाले थे पहले वागड़ गुजरात में था, वर्तमान में राजस्थान में है ।लेकिन मज़े की बात यह है कि हम दोनों भाषाओं पर अपना हक मानते हैं। यों भी मेरी पूरी शिक्षा गुजराती माध्यम से हुई थी। बापूजी के कवि होने से हिंदी में भी मेरी सहज गति थी। कई सालों तक दोनों भाषाओं में लिखा था, अब सिर्फ हिंदी में लिखती हूँ, कभी-कभी अपनी हिंदी कहानियों का गुजराती में पुनर्लेखन करती हूँ।
किसी भी कवि के लिए वह क्षण अलौकिक सा होता है जब उसे यह अनुभूति हो कि वह कवि है. इस सन्दर्भ में एक घटना को याद करते हुए उन्होंने बताया था कि कवि बनना चाहने जैसी बात नहीं होती। अपने कवि होने का पता तब चला जब एक शाम मेरे में एक चकित सी करती हुई पंक्ति कौंधी, जो तब तक मेरी पढ़ी और सुनी हुई कविताओं से अलग थी. वह कविता थी- इस बात का पता मुझे चल गया था।
उनके जीवन में ‘कविता’ ने अपनी जगह तभी बना ली थी। जीवन के उतार-चढ़ाव में भी लेखन का साथ कभी नहीं छूटा. विख्यात लेखक रमेशचन्द्र शाह से विवाह के बाद उनकी कर्मभूमि भोपाल ही रही। वह अपने हर काम में ‘परफेक्शन’ को पसंद करतीं थीं, यहाँ तक कि विभिन्न दायित्यों के निर्वहन में भी। फलस्वरूप अन्य रचनाकारों के मुकाबले उनकी रचनाओं की संख्या कम ही रही। तमाम दायित्वों को सदैव पूर्णता के साथ ही निभाते हुए चलती रहीं और चलते-चलते 5 मई 2014 को इस दुनियां को ही छोड़कर चलीं गईं, हमेशा के लिए।
शिक्षा : 1965 में गुजराती साहित्य से एम.ए. तथा 1970 में अंग्रेजी साहित्य से एम.ए.।
रचना-संसार : तीन उपन्यास, छह कहानी-संग्रह, दो कविता-संग्रह, ‘स्मृति होते होते’ (संस्मरण), ‘कहते-कहते बात को’ (साक्षात्कार) प्रकाशित। स्त्रियों के संगठन ‘सेवा’ के मासिक मुखपत्र ‘अनसूया’ का छब्बीस वर्ष तक निरंतर संपादन; इला भट्ट की स्त्री-चिंतन की पुस्तक ‘हम सविता’ का अनुवाद तथा संपादन; इला बहन के ही उपन्यास ‘लारीयुद्ध’ का अनुवाद। गुजराती से राजेंद्र शाह, निरंजन भगत, सुरेश जोशी, लाभशंकर ठाकर, गुलाम मोहम्मद शेख, प्रियकांत मणियार, पवनकुमार जैन की कविताओं एवं कहानियों का अनुवाद।
उपलब्धियां: वर्ष 1985-86 के लिए म.प्र. सरकार की मुक्तिबोध फेलोशिप; वर्ष 1996 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की सीनियर फेलोशिप। रामानुजन तथा धारवाडकर द्वारा संपादित ‘दि ऑक्सफोर्ड एंथोलॉजी ऑफ इंडियन पोइट्री’, आरलिन जाइड द्वारा संपादित ‘इन देयर ओन वॉइस’, साहित्य अकादेमी की काव्यार्धशती, ल्यूसी रोजेंटाइन द्वारा संपादित ‘न्यू पोइट्री इन हिंदी’, सारा राय द्वारा संपादित हिंदी कहानी संकलन ‘हेंडपिक्ड हिंदी फिक्शन’, स्वीडिश में प्रकाशित भारतीय कविता संचयन में रचनाएँ संकलित।
संपादन – मीडियाटिक डेस्क
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